अनुशासन पर कविता
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कार्यालय की बात एक दिन काम जरूरी पाया।
अभी करा लाता हूँ सोचा उनके पास मैं आया।
दरवाजा खोला मैंने जैसे ही अन्दर पहुँचा।
सोईं थी सिर मेजपै रखकर देखते ही मैं चौंका।
कोशिश करी नींद टूटे पर एक नहीं चल पाई।
फिर मैंने ठक-ठक-ठक करके उनकी मेज बजाई।
तब जाकर आँखें खोलीं और लेने लगीं जम्हाई।
मैं बतला रहा काम उन्हें दोबारा निंद्रा आई।
सन्न रह गया देख उन्हें फिर वहाँ नहीं रूक पाया।
काम कराए बिना ब्यथित मन से मैं वापस आया।
जाग उठा था अंर्तमन में तभी एक सोया सन्देश।
दो हजार बीसवीं सदी तक भारत बनेगा विकसित देश।
देने लगा चुनौती उसको उनका यों सोना र्निद्वन्द।
अनुशासन तो बात दूर की काम-काज ही कर दिया बन्द।
उद्वेलित हुआ मेरा मन मंथन किया और गहन मनन।
समझाया सब किये जतन लेकिन मिटी नहीं उलझन।
विचलित हुआ बहुत अकुलाया तब मन को मरहम यों लगाया।
वो भी तेरी तरह इन्सान काम का अपने रखें ध्यान।
कर्तव्यों को समझें खूब देशप्रेम उनमें भरपूर।
मजबूरी थी शायद कोई इसीलिए दफ्तर में सोई।
नकारात्मक तू मत सोच उनको खुद होगा अफसोस।
दिल को हुई तसल्ली मात्र कालान्तर धुंधली हुई याद।
भूल रहा था मैं वह घटना तभी हो गया फिर से मिलना।
देखा उन्हें सामने आते जख्म हो गये फिर से ताजे।
आयीं पास नहीं अब दूर नजरों को दी मैंने छूट।
आंख फाड़ उन्हें देख रहा मानो छुपा खजाना खोज रहा।
क्योंकि मुझे था यह विश्वास उनको भी आयेगी याद।
अपनी उस दिन की मुलाकात जिसने दिया मुझे संताप।
मजबूरी थी वो बोलेंगी और नजरें नीचे कर लेंगी।
मगर हो गया सब कुछ उल्टा फिर से दिया जोर का झटका।
नजरें तीखी और कठोर अपलक देखें मेरी ओर।
सख्त और सपाट था चेहरा चिल्ला-चिल्लाकर यह कहता।
ऐसी बातें तो सामान्य कार्यालय में चलती आम।
तुमने उसे दे दिया तूल मेरी नहीं थी कोई भूल।
इन्डिया है यहाँ सब चलता है कोई नहीं परवाह करता है।
चली गई वो मैं बेकल मन में हुई वही हलचल।
सोलह साल बचे हैं मात्र बनना है हमें विकसित राष्ट्र।
कैसे होगी मंशा पूरी क्या अनुशासन नहीं जरूरी?
या हम यूँ ही करेंगे काम यूँ ही बनायेंगे देश महान?
प्रश्न कठिन है नहीं सरल आओ मिलकर करेंगे हल॥